Friday, March 16, 2012

परछाइयाँ

परछाइयाँ भी धुंधली लगती है कभी ...

कांपती रहती है कम रौशनी के दायरे में

पारदर्शी सतह पे मजबूर दिखती है कभी.

लिपटी रहती है धुंध से सर्द रातों में ,

फिर चूल्हे के धुंए में घुली रहती है कभी.

.

रहती है झिलमिल डबडबायी बूढी आँखों से ,

पत्तों की छांव में खोयी रहती है कभी.

घुर्घुराई छुपती है धुल के बवंडर से ,,

अविरल धारा में चमचमाती रहती है कभी.

यादों के पन्नों पर सरसराती मिलती है कहीं ,

उगते सूरज से लड़खड़ाई मिलती है कभी,

परछाइयाँ भी धुंधली लगती है कभी .


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