Sunday, August 11, 2013

fitrat

ना करो ज़लील इतना फ़ितरत को,
अपनी नाकामियों के शोक से ,
की खुद-ब-खुद बंद हों बेवक्त,
तेरी नज़रें ज़िल्लत के ख़ौफ़ से

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Monday, July 30, 2012

खंडहर

कुछ पुराना सा हूमें अच्छा क्यूँ लगता है,
उस ढह चुकी इमारत का वो हिस्सा
कुछ अपना सा क्यूँ लगता है.

उन खुरदूरी  दीवारों में खुद को टटोलना,
उंगलियों से उन उभरे हुए क़िस्सों को पढ़ना,
और पेन्सिलो से उकेरी उन तस्वीरों को तकना
कुछ सच्चा सा क्यूँ लगता है.



उस पुरानी मेज़ पर जमी हुई धूल में धौंकना ,
काँपते हाथों से उन दरखतों की संदूक खोलना
और कापियों से फटे उन पन्नों को पलटना
एक सपना सा क्यूँ लगता है.




उस ढह चुकी इमारत का वो हिस्सा
कुछ अपना सा क्यूँ लगता है.

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Friday, March 16, 2012

परछाइयाँ

परछाइयाँ भी धुंधली लगती है कभी ...

कांपती रहती है कम रौशनी के दायरे में

पारदर्शी सतह पे मजबूर दिखती है कभी.

लिपटी रहती है धुंध से सर्द रातों में ,

फिर चूल्हे के धुंए में घुली रहती है कभी.

.

रहती है झिलमिल डबडबायी बूढी आँखों से ,

पत्तों की छांव में खोयी रहती है कभी.

घुर्घुराई छुपती है धुल के बवंडर से ,,

अविरल धारा में चमचमाती रहती है कभी.

यादों के पन्नों पर सरसराती मिलती है कहीं ,

उगते सूरज से लड़खड़ाई मिलती है कभी,

परछाइयाँ भी धुंधली लगती है कभी .


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परिचित

कभी चिंतित,कभी विचलित,

कहीं सीमित कहीं विस्मित

तेरे नयनों से परिचित,

कभी लालित ,कभी उद्वेलित,

कभी पुलकित कभी कम्पित,

तेरे अधरों से परिचित,

कहीं व्याकुल, कहीं विस्तृत,

कहीं चंचल ,कहीं सशंकित,

तेरे मन से मैं परिचित,

तेरी थिरकन पे हर्षित,

तेरे भावों से शाषित,

तेरी खुशियों पे अर्पित,

मैं तेरा एक परिचित.


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की तू दौड़ सके वक़्त आने पे

रनभूमि को छोर,

तेरा मोक्ष नहीं मिलेगा वहां,

तपभूमि को छोर,

तेरा चरम नहीं साकार वहां,

लड़ सकता है तो लड़,

स्वभूमि के हुंकारों से,

अविजित छोरे हुए

भूकाल के उन सन्नाटों से ,

कर सकता है याद तो कर,

वचन अपनी नन्ही जबानों के,

नहीं तौलती थी जो आँखें,

चाहत को धन के पैमाने से,

कर सकता है तो कर खुश उन्हें,

जिसने थामा तुझे थक जाने पे

कन्धों पर रखकर तुझे घुमाया,

की तू दौड़ सके वक़्त आने पे.


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अफ़वाह

उस दिन गिरा एक सूरज पाताल में,

बारिश हुई जब बवंडर के सुर-ताल में,

अंधेरों की बादशाहत किरणों पर हुई,

सारी हवाओं की सांसें यूँही घुट गयी,

तिलमिलाती सच्चाई की सूखी परतों को,

अफ़वाहों की एक काली चादर ढक गयीं.


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फरियाद

सदियों से नहीं बीती,

ख़त्म नहीं हुई शुरुआत से,

बढ़ी कम होती गयी दूरियों में,

दास्ताँ न दर्ज हुई अल्फाज़ में .

अरसों से नहीं कही,

लिखी नहीं किसी जज्बात से ,

चेहरे के तासुरों में दिखी ,

मिली शीरी को फरहाद में .

मिली कल- आज- कल में नहीं ,

गुम हुई हर साँस की दरकार में

कुछ परिंदों को जन्नत बराबर दिखी ,

कभी खोयी किसी की फरियाद में.

.


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