Monday, July 30, 2012

खंडहर

कुछ पुराना सा हूमें अच्छा क्यूँ लगता है,
उस ढह चुकी इमारत का वो हिस्सा
कुछ अपना सा क्यूँ लगता है.

उन खुरदूरी  दीवारों में खुद को टटोलना,
उंगलियों से उन उभरे हुए क़िस्सों को पढ़ना,
और पेन्सिलो से उकेरी उन तस्वीरों को तकना
कुछ सच्चा सा क्यूँ लगता है.



उस पुरानी मेज़ पर जमी हुई धूल में धौंकना ,
काँपते हाथों से उन दरखतों की संदूक खोलना
और कापियों से फटे उन पन्नों को पलटना
एक सपना सा क्यूँ लगता है.




उस ढह चुकी इमारत का वो हिस्सा
कुछ अपना सा क्यूँ लगता है.

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